अफगानिस्तान के साथ जंग में PAK को सऊदी का साथ? NATO जैसी डील का लिटमस टेस्ट
अफगानिस्तान के साथ जंग में PAK को सऊदी का साथ मिलेगा या नहीं, यह अब पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया की सुरक्षा संतुलन को तय करेगा। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच बढ़ते सीमा संघर्ष ने एक नए भू-राजनीतिक समीकरण को जन्म दिया है।
जहाँ एक ओर पाकिस्तान अपने पारंपरिक सहयोगी सऊदी अरब की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख रहा है, वहीं सऊदी का रुख अब तक पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। इस स्थिति ने पूरे इस्लामिक ब्लॉक और क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन को नए सिरे से परिभाषित कर दिया है।
पाक-अफगान तनाव की जड़ें: कब और कैसे बढ़ा विवाद
अफगानिस्तान के साथ जंग में PAK को सऊदी का साथ मिलने की उम्मीद तब बढ़ी जब पिछले कुछ महीनों में अफगान सीमा पर लगातार झड़पें बढ़ीं।
डूरंड लाइन को लेकर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच विवाद कोई नया नहीं है।
लेकिन अगस्त 2025 में हुई गोलीबारी में पाकिस्तान के 20 सैनिकों की मौत के बाद दोनों देशों के बीच रिश्ते बेहद तनावपूर्ण हो गए।
अफगान सरकार ने इस्लामाबाद पर सीमा पार हवाई हमले करने का आरोप लगाया, जबकि पाकिस्तान ने कहा कि हमला आतंकवादी ठिकानों पर किया गया था। इस टकराव ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान खींचा है।
सऊदी अरब की भूमिका: पुराने रिश्तों की नई परीक्षा
इतिहास गवाह है कि अफगानिस्तान के साथ जंग में PAK को सऊदी का साथ हमेशा निर्णायक रहा है।
1980 के दशक में सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान सऊदी अरब ने पाकिस्तान को आर्थिक और धार्मिक दोनों स्तरों पर सहयोग दिया था।
लेकिन मौजूदा हालात अलग हैं — सऊदी अब अमेरिका, ईरान और चीन के बीच एक संतुलित कूटनीतिक खेल खेल रहा है।
रियाद की प्राथमिकता अब “क्षेत्रीय स्थिरता” है, न कि किसी एक पक्ष को खुला सैन्य समर्थन देना। सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने हाल ही में कहा था —
“हम किसी भी इस्लामिक देश के आंतरिक संघर्ष में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते, लेकिन शांति प्रयासों का समर्थन करेंगे।”
इस बयान ने पाकिस्तान की उम्मीदों पर ठंडा पानी डाल दिया है।
NATO जैसी डील का दावा और सऊदी की रणनीति
पाकिस्तान ने हाल ही में यह दावा किया था कि उसके पास सऊदी अरब के साथ एक तरह की “NATO-स्टाइल सुरक्षा समझौता” है — जिसमें किसी सदस्य देश पर हमले की स्थिति में पारस्परिक रक्षा सहायता दी जाएगी।
लेकिन अब सवाल यही है कि क्या यह डील अफगानिस्तान के साथ जंग में PAK को सऊदी का साथ दिला पाएगी?
सऊदी विशेषज्ञों का कहना है कि यह समझौता “राजनैतिक प्रतीकात्मकता” भर है, कोई औपचारिक रक्षा समझौता नहीं।
रियाद इस समय यमन और गाजा के संकटों में पहले से ही व्यस्त है, ऐसे में वह अफगान मोर्चे पर खुला समर्थन देने की स्थिति में नहीं है।
इस्लामिक मिलिट्री एलायंस की भूमिका पर सवाल
2015 में बनाए गए “Islamic Military Counter Terrorism Coalition (IMCTC)” का नेतृत्व सऊदी अरब करता है, जिसमें पाकिस्तान भी शामिल है।
परंतु इस गठबंधन का मुख्य उद्देश्य आतंकवाद-रोधी अभियान है, न कि अंतर-राज्यीय युद्ध।
इसलिए, अफगानिस्तान के साथ जंग में PAK को सऊदी का साथ मिलना इस प्लेटफॉर्म के तहत संभव नहीं दिखता।
IMCTC ने अब तक इस विवाद पर कोई औपचारिक बयान नहीं दिया है। इससे पाकिस्तान की स्थिति और कमजोर हुई है।
चीन और अमेरिका की नजरें: नई भू-राजनीतिक शतरंज
अफगानिस्तान के साथ जंग में PAK को सऊदी का साथ मिलने या न मिलने का असर केवल दक्षिण एशिया तक सीमित नहीं रहेगा।
चीन, जो पाकिस्तान का सबसे बड़ा सामरिक सहयोगी है, पहले ही “सीमित मध्यस्थता” की पेशकश कर चुका है।
वहीं अमेरिका इस पूरे संकट को “पाकिस्तान के भीतर उग्रवाद के परिणाम” के रूप में देख रहा है।
कूटनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर सऊदी अरब तटस्थ रहता है, तो पाकिस्तान को केवल चीन और तुर्की का समर्थन मिल सकता है।
अफगानिस्तान इस समय रूस और ईरान के करीब है — यानी क्षेत्र में एक नया ब्लॉक डिवाइड बनता दिख रहा है।
विश्लेषण: क्या टूटेगा पुराना विश्वास?
भले ही पाकिस्तान लंबे समय से सऊदी अरब को अपना “भाई देश” मानता रहा हो, लेकिन बदलते भू-राजनीतिक समीकरणों में रिश्ते भावनाओं से नहीं, हितों से तय होते हैं।
सऊदी अरब अब “आर्थिक साझेदारी” और “ऊर्जा सुरक्षा” को प्राथमिकता दे रहा है, न कि सैन्य गठबंधन को।
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो अफगानिस्तान के साथ जंग में PAK को सऊदी का साथ मिलना अब केवल एक कूटनीतिक उम्मीद बनकर रह गया है।
विशेषज्ञों का मानना है कि रियाद इस बार खुला सैन्य समर्थन देने से बचेगा और “मध्यस्थ” की भूमिका में रहेगा।
निष्कर्ष: लिटमस टेस्ट का परिणाम
अफगानिस्तान के साथ जंग में PAK को सऊदी का साथ मिलेगा या नहीं — इसका जवाब आने वाले दिनों में साफ होगा, लेकिन फिलहाल संकेत यह हैं कि रियाद किसी एक पक्ष का साथ नहीं लेने वाला।
यह स्थिति पाकिस्तान के लिए एक कूटनीतिक “लिटमस टेस्ट” बन चुकी है, जहाँ उसे अपने पुराने मित्रों के बीच भी भरोसे की कमी महसूस हो रही है।
NATO जैसी डील की बात करने वाला पाकिस्तान अब यह समझने लगा है कि बदलती दुनिया में “इस्लामिक एकता” से ज्यादा “राष्ट्रीय हित” मायने रखते हैं।